चार्ल्स डार्विन....
12 फरवरी 1809 महान वैज्ञानीक चार्ल्स डार्विन का जन्म हुआ । चार्ल्स डार्विन ने अपने समय की जैव विकास संबधित समस्त धारणाओं का झुठलाते हुये क्रमिक विकासवाद(Theory of Evolution) का सिद्धांत प्रतिपादित किया था।जीवों में वातावरण और परिस्थितियों के अनुसार या अनुकूल कार्य करने के लिए क्रमिक परिवर्तन तथा इसके फलस्वरूप नई जाति के जीवों की उत्पत्ति को क्रम-विकास या विकासवाद (Evolution) कहते हैं। क्रम-विकास एक मन्द एवं गतिशील प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप आदि युग के सरल रचना वाले जीवों से अधिक विकसित जटिल रचना वाले नये जीवों की उत्पत्ति होती है। जीव विज्ञान में क्रम-विकास किसी जीव की आबादी की एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के दौरान जीन में आया परिवर्तन है। हालांकि किसी एक पीढ़ी में आये यह परिवर्तन बहुत छोटे होते हैं लेकिन हर गुजरती पीढ़ी के साथ यह परिवर्तन संचित हो सकते हैं और समय के साथ उस जीव की आबादी में काफी परिवर्तन ला सकते हैं। यह प्रक्रिया नई प्रजातियों के उद्भव में परिणित हो सकती है। दरअसल, विभिन्न प्रजातियों के बीच समानता इस बात का द्योतक है कि सभी ज्ञात प्रजातियाँ एक ही आम पूर्वज (या पुश्तैनी जीन पूल) की वंशज हैं और क्रमिक विकास की प्रक्रिया ने इन्हें विभिन्न प्रजातियों मे विकसित किया है।
दुनिया के सभी धर्मग्रंथों में यह स्पष्ट रूप से उल्लिखित है कि मानव सहित सृष्टि के हर चर और अचर प्राणी की रचना ईश्वर ने अपनी इच्छा के अनुसार की। प्राचीन पौराणिक ग्रंथों में उपलब्ध वर्णन से भी स्पष्ट होता है कि प्राचीनकाल में मनुष्य लगभग उतना ही सुंदर व बुद्धिमान था जितना कि आज है। पश्चिम की अवधारणा के अनुसार यह सृष्टि लगभग छह हजार वर्ष पुरानी है। यह विधाता द्वारा एक बार में रची गई है और पूर्ण है।
ऐसी स्थिति में किसी प्रकृति विज्ञानी (औपचारिक शिक्षा से वंचित) द्वारा यह प्रमाणित करने का साहस करना कि यह सृष्टि लाखों करोड़ों वर्ष पुरानी है, अपूर्ण है और परिवर्तनीय है-कितनी बड़ी बात होगी। इसकी केवल कल्पना ही की जा सकती है। ईश्वर की संतान या ईश्वर के अंश मानेजाने वाले मनुष्य के पूर्वज वानर और वनमानुष रहे होंगे, यह प्रमाणित करनेवाले को अवश्य यह अंदेशा रहा होगा कि उसका हश्र भी कहीं ब्रूनोऔर गैलीलियो जैसा न हो जाए।
अनादि माने जानेवाले सनातन धर्म, जिसे हिंदू धर्म के नाम से भी जाना जाता है, में कल्पना की गई है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना की और मनु व श्रद्धा को रचा। आदिपुरुष व आदिस्त्री माने जाने वाले मनु और श्रद्धा को आज भी पूरे श्रद्धा व आदर से पूजा जाता है, क्योंकि हम सब इन्हीं की संतान माने जाते हैं। उसी तरह अति प्राचीन यहूदी धर्म, लगभग दो हजार वर्ष पुराने ईसाई धर्म और लगभग तेरह वर्ष पुराने इसलाम धर्म में आदम एवं हव्वा को आदिपुरुष और आदिस्त्री माना जाता है। उनका नाम भी आदर के साथ लिया जाता है, क्योंकि सभी इनसान उनकी ही संतान माने जाते हैं।
कालक्रम की गणना में विभिन्न धर्मों में अंतर है। सनातन धर्म की मान्यताओं के अनुसार, सृष्टि की रचना होती है, विकास होता है और फिर संहार (प्रलय) होता है। इसमें युगों की गणना का प्रावधान है और हर युग लाखों वर्ष का होता है, जैसे वर्तमान कलियुग की आयु चार लाख बत्तीस हजार वर्ष आँकी गई है।
पश्चिमी धर्मों(अब्राहमिक धर्मो) की मान्यताओं के अनुसार ईश्वर ने सृष्टि की रचना एक बार में और एक बार के लिए की है। उनके अनुसार मानव की रचना अधिक पुरानी नहीं है। लगभग छह हजार वर्ष पूर्व मनुष्य की रचना उसी रूप में हुई है जिस रूप में मनुष्य आज है। इसी तरह सृष्टि के अन्य चर-अचर प्राणी भी इसी रूप में रचे गए और वे पूर्ण हैं।
लेकिन मनुष्य की जिज्ञासाएँ कभी शांत होने का नाम नहीं लेती हैं। सत्य की खोज जारी रही। परिवर्तशील प्रकृति का अध्ययन उसने अपने साधनों के जरिए जारी रखा और उपर्युक्त मान्याताओं में खामियाँ शीघ्र ही नजर आने लगीं।
पूर्व में धर्म इतना सशक्त व रूढ़िवादी कभी नहीं रहा। समय-समय पर आर्यभट, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य जैसे विद्वानों ने जो नवीन अनुसंधान किए उन पर गहन चर्चा हुई। लोगों ने पक्ष और विपक्ष में अपने विचार स्पष्ट रूप से व्यक्त किए।
परंतु पश्चिम में धर्म अत्यंत शक्तिशाली था। वह रूढ़ियों से ग्रस्त भी था। जो व्यक्ति उसकी मान्यताओं पर चोट करता था उसे इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती थी। कोपरनिकस ने धार्मिक मान्यता पर पहली चोट की। उनका सिद्धांत उनकी पुस्तक मैग्नम ओपस के रूप में जब आया तो वे मृत्यु-शय्या पर थे और जल्दी ही चल बसे। ब्रूनो एवं गैलीलियो जैसे वैज्ञानिकों को भारी कीमत चुकानी पड़ी। ब्रूनो को जिंदा जला दिया गया। गैलीलियो को लंबा कारावास भुगतना पड़ा। पर उनके ये बलिदान व्यर्थ नहीं गए। उन्होंने लोगों के ज्ञानचक्षु खोल दिए। अब लोग हर चीज को वैज्ञानिक नजरिए से देखने लगे।
उन्नीसवीं सदी के पहले दशक में प्रख्यात चिकित्सक परिवार में जनमे चार्ल्स डार्विन ने चिकित्सा का व्यवसाय नहीं चुना। हारकर उनके पिता ने उन्हें धर्माचार्य की शिक्षा दिलानी चाही, पर वह भी पूरी नहीं हो पाई। बचपन से ही प्राकृतिक वस्तुओं में रुचि रखनेवाले चार्ल्स को जब प्रकृति विज्ञानी के रूप में बीगल अनुसंधान जहाज में यात्रा करने का अवसर मिला तो उन्होंने अपने जीवन को एक नया मोड़ दिया।
समुद्र से डरनेवाले तथा आलीशान मकान में रहनेवाले चार्ल्स ने पाँच वर्ष समुद्री यात्रा में बिताए और एक छोटे से केबिन के आधे भाग में गुजारा किया। जगह-जगह की पत्तियाँ, लकड़ियाँ पत्थर कीड़े व अन्य जीव तथा हडड्डियाँ एकत्रित कीं। उन दिनों फोटोग्राफी की व्यवस्था नहीं थी। अतः उन्हें सारे नमूनों पर लेबल लगाकर समय-समय पर इंग्लैंड भेजना होता था। अपने काम के सिलसिले में वे दस-दस घंटे घुड़सवारी करते थे और मीलों पैदल भी चलते थे। जगह-जगह खतरों का सामना करना, लुप्त प्राणियों के जीवाश्मों को ढूँढ़ना, अनजाने जीवों को निहारना ही उनके जीवन की नियति थी।
गलापागोज की यात्रा चार्ल्स के लिए निर्णायक सिद्ध हुई। इस द्वीप में उन्हें अद्भुत कछुए और छिपकलियाँ मिलीं। उन्हें विश्वास हो गया कि आज जो दिख रहा है, कल वैसा नहीं था। प्रकृति में सद्भाव व स्थिरता दिखाई अवश्य देती है, पर इसके पीछे वास्तव में सतत संघर्ष और परिवर्तन चलता रहता है।
चार्ल्स डार्विन ने जब 150वर्ष पूर्व “द ओरिजिन आफ़ स्पेशीज” का प्रकाशन किया था, तब उन्होने जानबूझकर जीवन की उत्त्पति के विषय को नजर अंदाज किया था। इसके साथ साथ अंतिम पैराग्राफ़ मे ‘क्रीयेटर’ (निर्माता) का जिक्र हमे इस बात का भी अहसास दिलाता है कि वे इस विषय पर किसी भी प्रतिज्ञा या दावे से झिझक रहे थे। यह कथन अकसर चार्ल्स डार्विन के संदर्भ मे सुनने मे आ जाता है। लेकिन उपरोक्त कथन सही नही है और सच यह है कि अंग्रेज प्रकृतिवादी डार्विन ने दूसरे कई दस्तावेजों मे इस बात पर विस्तार से चर्चा कीहै कि किस तरह पहले पूर्वज असितत्व मे आये होंगे।
चार्ल्स डार्विन ने सन 1859 मे द ओरिजिन आफ़ स्पेशीज मे यह कथन प्रकाशित किया था। डार्विन अपने सिद्धांत हेतु इस विषय के महत्व को लेकर पूर्णत: आश्वस्त थे। उनके पास रसायनो का जैविक घटको मे परिवर्तित हो जाने की घटना को ले कर आधुनिक भौतिक्तावादी तथा विकासवादी समझ व दृष्टि थी। खास बात यह है कि उनकी यह धारणा पास्चर के सहज पीढ़ी की धारण के विरोध मे किये जा रहे प्रयोगों के बावजूद बरकरार थी।
1859 में चार्ल्स डार्विन ने ‘ओरिजिन आफ स्पेसीज‘ नामक पुस्तक प्रकाशित करके विकासवाद का सिद्धांत प्रकाशित किया, जिसके मूल तत्व निम्नलिखित हैं-
इस विविधतापूर्ण दृश्य जगत का आरंभ एक सरल और सूक्ष्म एककोशीय भौतिक वस्तु (सेल या अमीबा) से हुआ है। यही एककोशीय वस्तु कालचक्र से जटिल होते-होते इस बहुमुखी विविधता में विकसित हुई है। जिसके शीर्ष पर मनुष्य नामक प्राणी स्थित है।