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उज्जैन सिंहस्थ कुम्भ महापर्व 2016....

सिंहस्थ उज्जैन का महान स्नान पर्व है। बारह वर्षों के अंतराल से यह पर्व तब मनाया जाता है जब बृहस्पति सिंह राशि पर स्थित रहता है। पवित्र क्षिप्रा नदी में पुण्य स्नान की विधियां चैत्र मास की पूर्णिमा से प्रारंभ होती हैं और पूरे मास में वैशाख पूर्णिमा के अंतिम स्नान तक भिन्न-भिन्न तिथियों में सम्पन्न होती है। उज्जैन के महापर्व के लिए पारम्परिक रूप से दस योग महत्वपूर्ण माने गए हैं।

प्राचीन भारत में आध्यात्मिक सत्यों को सांकेतिक कथाओं के माध्यम से सुरक्षित रखा जाता था कालान्तर मे यही कथाएँ विभिन्न परम्पराओं की जनक सिद्ध हुई और हमारी रहस्यमयी, विविधरंगी संस्कृति ने आकार ग्रहण किया। इसलिए यह सम्भव नहीं था कि कुम्भ जैसे आयोजनों के पीछे कोई कथा न हो। पुराणों में इसकी कथा है। चाहे आज इस कथा के पीछे के सत्य की कोई छाया भी हमारी  स्मृति में शेष न हो, लेकिन कथा तो है। कहा जाता है कि प्राचीन काल में हिमालय के समीप क्षीरोद नामक समुद्र तट पर देवताओं तथा दानवों ने एकत्र होकर फल प्राप्ति के लिए समुद्र-मन्थन किया। फलस्वरूप जो 14 रत्न प्राप्त हुए । उनमें श्री रम्भा, विष, वारुणी, अमिय, शंख, गजराज, धन्वन्तरि, धनु, तरु, चन्द्रमा, मणि और बाजि । इनमें से अमृत का कुम्भ अर्थात घड़ा सबसे अन्त में निकला। उसकी अमर करने वाली शक्ति से देवताओं को यह चिन्ता हुई कि यदि दानवों ने इसका पान कर लिया तो दोनों में संघर्ष स्थायी हो जाएगा। इसलिए देवताओं ने इन्द्र के पुत्र जयन्त को अमृत कलश को लेकर आकाश में उड़ जाने का संकेत किया। जयन्त अमृत के कलश को लेकर आकाश में उड़ गया और दानव उसे छीनने के लिए उसके पीछे पड़ गये। इस प्रकार अमृत-कलश को लेकर देवताओं व दानवों में संघर्ष छिड़ गया। दोनों पक्षों में 12 दिन तक संघर्ष चला। इस दौरान दानवों ने जयंत को पकड़कर अमृत कलश पर अधिकार करना चाहा। छीना-झपटी में कुम्भ से अमृत की बूँदें छलक कर जिन स्थानों पर गिरीं, वे हैं प्रयाग, हरि‍द्वार, नासिक तथा उज्जैन। इन चारों स्थानों पर जिस-जिस समय अमृत गिरा उस समय सूर्य, चन्द्र, गुरु आदि ग्रह-नक्षत्रों तथा अन्य योगों की स्थ‍िति भी उन्हीं स्थ‍ितियों के आने पर प्रत्येक स्थान पर यह कुम्भ पर्व मनाये जाने लगे।

कहते हैं कि कुम्भ की रक्षा के लिए चन्द्रमा, बृहस्पति ने दैत्यों से उसकी रक्षा की और सूर्य ने दानवों के भय से। अंत में विष्णु भगवान ने मोहिनी रूप धारण करके घड़े को अपने हाथ में ले लिया और युक्ति से देवताओं को सब अमृत पिला दिया। पृथ्वी पर जिन स्थानों पर विभिन्न समयों में अमृत की बूँदें गिरी थीं उन स्थानों पर अमृत का पुण्य-लाभ उक्त अवसर पर स्नान करने से मोक्ष के रूप में प्राप्त होता है। इसी आस्था और धार्मिक विश्वास के आधार पर प्रयाग, हरिद्वार, नासिक और उज्जैन में भिन्न-भिन्न समयों पर प्रति बारहवें वर्ष कुम्भ के मेले होते हैं। सिंह राशि में बृहस्पति के स्थित होने के कारण उज्जैन के कुम्भ को ‘सिंहस्थ कुम्भ महापर्व’ कहते हैं।

इसी प्रकार कुम्भ का धार्मिक महत्व तो स्पष्ट है। इनका संगठनात्मक और सामाजिक महत्व भी है। इन्हें द्वादशवर्षीय जन-सम्मेलन कहना अनुपयुक्त न होगा। बारह वर्षों के पश्चात् साधु-सन्त और महात्मा कुम्भ के बहाने उक्त नगरों में आते हैं। इससे आम लोगों को उनसे आध्यात्मिक सत्संग का लाभ उठाने का अवसर मिलता है। प्राचीन काल में साधु-सन्त नगरों से दूर गुफाओं और जंगलों में ही निवास करते थे। ऐसे ही पर्वों पर वे आम लोगों के बीच आते हैं।

भारत के चार कुम्भ पर्वों में उज्जैन का कुम्भ ‘सिंहस्थ कुम्भ महापर्व’ कहलाता है। यह नगरी अपनी विशिष्ट महानता के लिए भी प्रसिद्ध है। प्राचीन ग्रन्थों में कुरुक्षेत्र से गया को दस गुना, प्रयाग को दस गुना और गया को काशी से दस गुना पवित्र बताया गया है, लेकिन कुशस्थली अर्थात उज्जैन को गया से भी दस गुना पवित्र कहा गया है।

क्षिप्रा नदी ने उज्जैन के महत्व को और भी बढ़ा दिया है। वैशाख मास की पूर्णिमा को क्षिप्रा स्नान मोक्षदायक बताया गया है। उज्जैन में क्षिप्रा-स्नान का महत्व प्रति बारहवें वर्ष पड़ने वाले सिंहस्थ कुम्भ महापर्व पर्व तो और भी अधिक माना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि अमृत कलश से छलकी इन बूंदों से इन चार स्थानों की नदियॉ गंगा, यमुना, गोदावरी और शिप्रा अमृतमयी हो गई। 

सिंहस्थ महाकुंभ का महत्व

वैदिक जीवन पद्धति कुंभ जैसे आयोजनों का आदर्श रही है। देश को सांस्कृतिक एकसूत्रता में बांधने के लिए चारों कोनों में पीठों की स्थापना करने वाले आदिशंकराचार्य भी वैदिक जीवन के ही प्रचारक थे, इसलिए यह जानना दिलचस्प होगा कि कुंभ जैसे आयोजनों के बारें में वेदों में क्या कहा गया है। वैदिक स्थापनाओं से यह तो स्पष्ट है कि ऐसे आयोजन तब भी होते थे और बाद में आदिशंकराचार्य ने फिर से इस परम्परा को आगे बढ़ाया। वैदिक संस्कृति में जहां व्यक्ति की साधना, आराधना और जीवन पद्धति को परिष्कृत करने पर जोर दिया है, वहीं पवित्र तीर्थस्थलों और उनमें घटित होने वाले पर्वों व महापर्वों के प्रति आदर, श्रद्धा और भक्ति का पावन भाव प्रतिष्ठित करना भी प्रमुख रहा है। विश्व प्रसिद्ध सिंहस्थ महाकुंभ एक धार्मिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक महापर्व है, जहां आकर व्यक्ति को आत्मशुद्धि और आत्मकल्याण की अनुभूति होती है। सिंहस्थ महाकुंभ महापर्व पर देश और विदेश के भी साधु-महात्माओं, सिद्ध-साधकों और संतों का आगमन होता है। इनके सानिध्य में आकर लोग अपने लौकिक जीवन की समस्याओं का समाधान खोजते हैं। इसके साथ ही अपने जीवन को ऊध्र्वगामी बनाकर मुक्ति की कामना भी करता है। मुक्ति को अर्थ ही बंनधमुक्त होना है और मोह का समाप्त होना ही बंधनमुक्त होना अर्थात् मोक्ष प्राप्त करना है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार पुरुषार्थों में मोक्ष ही अंतिम मंजिल है। ऐसे महापर्वों में ऋषिमुनि अपनी साधना छोड़कर जनकल्याण के लिए एकत्रित होते हैं। वे अपने अनुभव और अनुसंधान से प्राप्त परिणामों से जिज्ञासाओं को सहज ही लाभान्वित कर देते हैं। इस सारी पृष्ठभूमि का आशय यह है कि कुंभ-सिंहस्थ महाकुंभ जैसे आयोजन चाहे स्वरस्फूर्त ही हों, लेकिन वह उच्च आध्यात्मिक चिन्तन का परिणाम है और उसका सुविचारित ध्येय भी है। ऋग्वेद में कहा गया है –

कुंभ पर्व में जाने वाला मनुष्य स्वयं दान-होमादि सत्कर्मों के फलस्वरूप अपने पापों को वैसे ही नष्ट करता है जैसे कुठार वन को काट देता है। जैसे गंगा अपने तटों को काटती हुई प्रवाहित होती है, उसी प्रकार कुंभ पर्व मनुष्य के पूर्व संचित कर्मों से प्राप्त शारीरिक पापों को नष्ट करता है और नूतन (कच्चे) घड़े की तरह बादल को नष्ट-भ्रष्ट कर संसार में सुवृष्टि प्रदान करता है। कुम्भ-पर्व सत्कर्म के द्वारा मनुष्य को इस लोक में शारीरिक सुख देने वाला और जन्मान्तरों में उत्कृष्ट सुखों को देने वाला है।

जब वैशाख मास हो, शुक्ल पक्ष हो और बृहस्पति सिंह राशि पर, सूर्य मेष राशि पर तथा चन्द्रमा तुला राशि पर हो, साथ ही स्वाति नक्षत्र, पूर्णिमा तिथि व्यतीपात योग और सोमवार का दिन हो तो उज्जैन में शिप्रा स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। विष्णु पुराण में कुम्भ के महात्म्य के संबंध में लिखा है कि कार्तिक मास के एक सहस्र स्नानों का, माघ के सौ स्नानों का अथवा वैशाख मास के एक करोड़ नर्मदा स्नानों का जो फल प्राप्त होता है, वही फल कुम्भ पर्व के एक स्नान से प्राप्त हो जाता है। इसी प्रकार एक सहस्र अश्वमेघ यज्ञों का फल या सौ वाजपेय यज्ञोें का फल अथवा सम्पूर्ण पृथ्वी की एक लाख परिक्रमाएं करने का जो फल होता है, वही फल कुम्भ के केवल एक स्नान का होता है।

सिंहस्थ कुंभ महापर्व धार्मिक व आध्यात्मिक चेतना का महापर्व है। धार्मिक जागृति द्वारा मानवता, त्याग, सेवा, उपकार, प्रेम, सदाचरण, अनुशासन, अहिंसा, सत्संग, भक्ति-भाव अध्ययन-चिंतन परम शक्ति में विश्वास और सन्मार्ग आदि आदर्श गुणों को स्थापित करने वाला पर्व है। हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन की पावन सरिताओं के तट पर कुंभ महापर्व में भारतवासियों की आत्मा, आस्था, विश्वास और संस्कृति का शंखनाद करती है। उज्जैन और नासिक का कुंभ मनाये जाने के कारण 'सिंहस्थ' कहलाते है। बारह वर्ष बाद फिर आने वाले कुंभ के माध्यम से उज्जैन के क्षिप्रा तट पर एक लघु भारत उभरता है। भारतीय संस्कृति, आस्था ओर विश्वास के प्रतीक कुंभ का उज्जैन के लिये केवल पौराणिक कथा का आधार ही नहीं, अपितु काल चक्र या काल गणना का वैज्ञानिक आधार भी है। भौगोलिक दृष्टि से अवंतिका-उज्जयिनी या उज्जैन कर्कअयन एवं भूमध्य रेखा के मध्य बिंदु पर अवस्थित है। भारतीय संस्कृति के सम्पूर्ण दर्शन कहाँ होते हैं? इस प्रश्न का सर्वाधिक निर्विवाद उत्तर है- मेले और पर्व। धार्मिक दृष्टि से सिंहस्थ महापर्व की अपनी महिमा है, परंतु इसके समाजशास्त्रीय महत्व से भी इंकार नहीं किया जा सकता। सिंहस्थ सामाजिक परिवर्तन और नियंत्रण की स्थितियों को समझने और तदनुरूप समाज निर्माण का एक श्रेष्ठ अवसर है। सही अर्थों में इसे "द्वादश वर्षीय जन सम्मेलन" कहा जा सकता है।

 सिंहस्थ पर्व का सर्वाधिक आकर्षण विभिन्न मतावलंबी साधुओं का आगमन, निवास एवं विशिष्ट पर्वों पर बड़े उत्साह, श्रद्धा, प्रदर्शन एवं समूहबद्ध अपनी-अपनी अनियों सहित क्षिप्रा नदी का स्नान है। लाखों की संख्या में दर्शक एवं यात्रीगण इनका दर्शन करते हैं और इनके स्नान करने पर ही स्वयं स्नान करते हैं। इन साधु-संतों व उनके अखाड़ों की भी अपनी-अपनी विशिष्ट परंपराएँ व रीति-रिवाज हैं।


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