शिक्षा का रोमांचित इतिहास....
यदि हम शिक्षा के क्षेत्र में भारत के इतिहास पर विचार करते है तो हमारे पाठको के लिए यह निश्चित रूप से सबसे दिलचस्प आलेख होगा | प्राचीन भारत में शिक्षा बहुत अनुशासित और अच्छी तरह से संगठित हुआ करती थी | इसीलिए भारत को 'विश्वगुरु' कहा जाता था। हमारे वेद पुराण उपनिषद एवं सभी धार्मिक ग्रन्थ आज भी भारत के अध्यात्म और भारत की वैज्ञानिक श्रेष्ठता को दर्शाते हैं | इस आलेख के माध्यम से हम भारत में शिक्षा की श्रेणी प्रस्तुत कर रहे है, जिसे प्राचीन, मध्ययुगीन और आधुनिक भारत की शिक्षा के रूप वर्गीकृत किया गया है।
सबसे पहले हम बताने जा रहे है भारत की प्राचीन शिक्षा का इतिहास | भारत में शिक्षा का एक रोचक इतिहास रहा है| प्राचीन भारत में शिक्षा हमेशा से ही बहुत अनुशासित, पारंपरिक और धार्मिक ज्ञान सीखने का मुख्य विषय हुआ करता था | इसी समय में ताड़ के पत्तों और पेड़ की छाल का उपयोग लेखन सामग्री के रूप मे किया जाता था और शिक्षा संतों और विद्वानों द्वारा मौखिक रूप से प्रदान की जाती थी, इस शिक्षा को एक पीढ़ी अपनी दूसरी पीढ़ी तक स्थान्तरित करती थी| स्कूलों की भूमिका में मंदिरों और सामुदायिक केंद्रों में विद्यार्थियों को अध्ययन कराया जाता था| कुछ समय पश्चात, शिक्षा की गुरुकुल प्रणाली का उदभव हुआ|
गुरुकुल ऐसे विद्यालय जहाँ विद्यार्थी अपने परिवार से दूर गुरू के परिवार का हिस्सा बनकर शिक्षा प्राप्त करता था। भारत के प्राचीन इतिहास में ऐसे विद्यालयों का बहुत महत्व था। प्रसिद्ध आचार्यों के गुरुकुल के पढ़े हुए छात्रों का सब जगह बहुत सम्मान होता था। इस शिक्षा का एक और अनूठा पहलू था इसकी मुफ्त उपलब्धता लेकिन अध्यन की समाप्ति पर छात्र के संपन्न परिवार को गुरु दक्षिणा' नामक एक स्वैच्छिक योगदान की अनुमति थी | गुरुकुल में शिक्षक धर्म के विभिन्न पहलुओं, शास्त्र, दर्शन, साहित्य, युद्ध, शासन कला, चिकित्सा ज्योतिष और इतिहास पर ज्ञान प्रदान करते थे|
प्राचीन भारत में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाएँ थीं-
(१) गुरुकुल- जहाँ विद्यार्थी आश्रम में गुरु के साथ रहकर विद्याध्ययन करते थे,
(२) परिषद- जहाँ विशेषज्ञों द्वारा शिक्षा दी जाती थी,
(३) तपस्थली- जहाँ बड़े-बड़े सम्मेलन होते थे और सभाओं तथा प्रवचनों से ज्ञान अर्जन होता था। नैमिषारण्य ऐसा ही एक स्थान था।
इस शिक्षा प्रणाली को भारत की सबसे पुरानी और सबसे प्रभावी शिक्षा प्रणाली के रूप में जाना जाता है |
पहली सहस्राब्दी की शुरुआत में, नालंदा, तक्षशिला विश्वविद्यालय, उज्जैन और विक्रमशिला विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा का प्रारम्भ देखा गया | इन विश्वविद्यालयों में महत्वपूर्ण विषयों में मुख्य रूप से कला, वास्तुकला, चित्रकला, गणित और तर्क, व्याकरण, दर्शन, खगोल विज्ञान, साहित्य, बौद्ध धर्म, हिंदू धर्म, अर्थशास्त्र, कानून, और चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी| प्रत्येक विश्वविद्यालय को अध्ययन की एक विशेष शाखा में विशेषज्ञता प्राप्त थी| जैसे की उज्जैन में खगोल विज्ञान जबकि तक्षशिला दवा (चित्रकला) के अध्ययन में ध्यान केंद्रित करता था| इसी के साथ नालंदा विश्वविद्यालय प्राचीन भारत में उच्च शिक्षा का सर्वाधिक महत्वपूर्ण और विख्यात केन्द्र था। सबसे बड़ा केंद्र होने के नाते, यहाँ ज्ञान की सभी शाखाओं का अध्यन उपलब्थ था, यहाँ १०,००० छात्रों को पढ़ाने के लिए २,००० शिक्षक थे।
अब हम पहुचते है मध्यकाल की शिक्षा तक | जहा भारत में मुस्लिम राज्य की स्थापना होते ही इस्लामी शिक्षा का प्रसार होने लगा। फारसी जाननेवाले ही सरकारी कार्य के योग्य समझे जाने लगे। हिंदू अरबी और फारसी पढ़ने लगे। इस्लाम के संरक्षण और प्रचार के लिए मस्जिदें बनती गई, साथ ही मकतबों, मदरसों और पुस्तकालयों की स्थापना होने लगी। मकतब प्रारंभिक शिक्षा के केंद्र होते थे और मदरसे उच्च शिक्षा के। मकतबों की शिक्षा धार्मिक होती थी। विद्यार्थी कुरान के कुछ अंशों का कंठस्थ करते थे। वे पढ़ना, लिखना, गणित, अर्जीनवीसी और चिट्ठीपत्री भी सीखते थे। इनमें हिंदू बालक भी पढ़ते थे।
शिक्षा के सफर को आगे बढ़ाते हुए हम पहुँचते है ब्रिटिश शासन तक जहा, ब्रिटिश रिकॉर्ड से पता चलता है की शिक्षा व्यापक रूप से 18 वीं सदी के दौरान भारत के अधिकांश क्षेत्रों में हर मंदिर, मस्जिद या गाँव में स्कूलों की उपलब्धता के साथ फैल गयी थी जिसके मुख्य विषय गणित, धर्मशास्त्र, कानून, खगोल विज्ञान, तत्वमीमांसा, नैतिकता, चिकित्सा विज्ञान और धर्म थे | मध्यकालीन समय में मदरसों पुस्तकालयों और साहित्यिक समाज की स्थापना हुई जिससे शिक्षा का स्तर बढ़ने लगा |
ब्रिटिश आगमन के साथ ही शिक्षा की वर्तमान प्रणाली की शुरुआत व स्थापना अंग्रेजों द्वारा लॉर्ड टॉमस बैबिंग्टन मैकॉले की सिफारिशों के आधार पर 20 वीं सदी में की गयी | मैकॉले ब्रिटेन का राजनीतिज्ञ, कवि, इतिहासकार था। अंग्रेजी को भारत की सरकारी भाषा तथा शिक्षा का माध्यम और यूरोपीय साहित्य, दर्शन तथा विज्ञान को भारतीय शिक्षा का लक्ष्य बनाने में इसका बड़ा हाथ था। अंग्रेजी पश्चिमी भाषा है ब्रिटिश सरकार ने हमारी परंपरागत संरचनाओं को ख़त्म कर स्वयं को स्थापित करने के लिए अंग्रेजी शिक्षा पर ज़ोर दिया | इस तरह, अन्य भाषा सीखने की तुलना में अंग्रेजी भाषा के अध्ययन के लिए अधिक जोर दिया गया था। ब्रिटिश सरकार का ऐसा मानना था की भारत को हमेशा-हमेशा के लिए अगर गुलाम बनाना है तो भारत कि आध्यात्मिक और सांस्कृतिक शिक्षा व्यवस्था को पूरी तरह से ध्वस्त करना होगा और उसकी जगह अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था लानी होगी और तभी इस देश में शरीर से भारतीय लेकिन दिमाग से अंग्रेज पैदा होंगे और जब इस देश की यूनिवर्सिटी से निकलेंगे तो हमारे हित में काम करेंगे| गांधी की पारंपरिक शिक्षा प्रणाली जो एक खूबसूरत पेड़ के रूप में वर्णित थी उसे ब्रिटिश शासन के दौरान नष्ट कर दिया गया|
भारत में आधुनिक शिक्षा की नींव यूरोपीय ईसाई धर्मप्रचारक तथा व्यापारियों के हाथों से डाली गई। उन्होंने कई विद्यालय स्थापित किए। प्रारंभ में मद्रास ही उनका कार्यक्षेत्र रहा। धीरे धीरे कार्यक्षेत्र का विस्तार बंगाल में भी होने लगा।
भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी राज्य करने लगी। शुरआत में यह कंपनी शिक्षा के विषय में उदासीन रही। फिर भी विशेष कारण और उद्देश्य से 1780 में कलकत्ते में 'कलकत्ता मदरसा' और 1791 में बनारस में 'संस्कृत कालेज' कंपनी द्वारा स्थापित किए गए। उच्च शिक्षा के प्रसार के लिए 1857 ईस्वी में कलकत्ता, बंबई और मद्रास विश्वविद्यालय स्थापित किए गए थे | 1858 में ईस्ट इंडिया कंपनी का विलय हो गया।
अब शिक्षा का एक नया पहलु सामने आया जिसके तहत 1882 में भारतीय शिक्षा आयोग की स्थापना की गयी | आयोग की सिफारिशों से भारतीय शिक्षा में उन्नति हुई। विद्यालयों की संख्या बढ़ी। नगरों में नगरपालिका और गाँवों में जिला परिषद् का निर्माण हुआ और शिक्षा आयोग ने प्राथमिक शिक्षा को इनपर छोड़ दिया परंतु इससे विशेष लाभ नहीं हुआ। 1911 में ब्रिटिश सरकार ने 186 विश्वविद्यालय और कॉलेज खोले जिसमे 36,000 छात्रों (90% से अधिक पुरुष) ने दाखिला लिया | 1939 तक इन्ही संस्थानों की संख्या दोगुनी हो गई है और नामांकन 145,000 पर पहुंच गया | जहा शास्त्रीय ब्रिटिश मानकों का पालन कर ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज के पाठ्यक्रमों को पढ़ाया गया, और अंग्रेजी साहित्य और यूरोपीय इतिहास पर बल दिया | 1920 के दशक तक छात्र निकाय भारतीय राष्ट्रवाद का बड़ा केंद्र बन गए थे |
आजादी के बाद की शिक्षा पर विचार करे तो 1964 में, शिक्षा आयोग ने 16 सदस्यों के साथ कार्य करना आरंभ किया जिसमे से 11 भारतीय विशेषज्ञ और 5 विदेशी विशेषज्ञ थे | आयोग ने भी कई अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, विशेषज्ञों और सलाहकारों से शिक्षा के साथ ही वैज्ञानिक क्षेत्र में चर्चा की | बाद में शिक्षा के क्षेत्र को काफी हद तक केन्द्र सरकार द्वारा नियंत्रित किया गया था लेकिन धीरे-धीरे केन्द्रीय और राज्य सरकारों के माध्यम से 1976 में संविधान में संशोधन करके एक संयुक्त प्रयास बन गया।
केन्द्र सरकार ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय के शिक्षा विभाग और राज्यों में सरकारों के माध्यम से शिक्षा नीति और योजना तैयार की | एनपीई 1986 और संशोधित पीओए 1992 की कल्पना के अनुसार 21 वीं सदी की शुरुआत तक 14 साल तक के सभी बच्चों के लिए नि: शुल्क और अनिवार्य शिक्षा नीतियों की योजना का नियोजन व इसके अलावा भारत सरकार ने वादा किया की 2000 तक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 6% शिक्षा पर खर्च किया जाएगा जिसका आधा प्रतिशत प्राथमिक शिक्षा पर खर्च किया जाएगा |
नवंबर 1998 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विश्वविद्यालयों, यूजीसी और सीएसआईआर को जोड़ने के लिए विद्या वाहिनी नेटवर्क की स्थापना की घोषणा की |
हालांकि जब भारत के शिक्षा के इतिहास पर बात करते है तो भारत के पास शिक्षा का एक समृद्ध अतीत है, परन्तु अभी भी देश अशिक्षा के उच्च प्रतिशत और स्कूल छोड़ने वाले बच्चों की उच्च दर से पीड़ित है |